फिल्म OMG 2 दर्शकों को काफी पसंद आ रही है। अक्षय कुमार एवं पंकज त्रिपाठी स्टारर OMG 2 को जितने बढियाँ रिव्यू मिले, उतनी ही पब्लिक ने इसकी प्रशंसा भी की है। और इस प्रशंसा में कुछ गलत भी नहीं है। क्योंकि सेक्स जैसे शब्द से दुरी बनाने वाले समाज के लिए “एडल्ट एजुकेशन” पर बात करना वो भी एक बड़े पर्दे पर, एक दिलेरी का काम तो अवश्य है।
बड़े पर्दे की OMG 2 फिल्म की कहनी का मुद्दा एक दिलेरी भरी कोशिश अवश्य है। परन्तु इस कोशिश में फिल्म जिन मार्गों से होकर निकलती है। उसमें काफी परेशानियां हैं। इस फिल्म को अब तक काफी लोग देख चुके हैं। और एक बार फिल्म देखने के बाद इस बात को समझना अधिक सरल होगा।
मुद्दा क्या है इस फिल्म में
फिल्म OMG 2 में एक बच्चा है, विवेक (आरुष वर्मा) जो अभी जवानी की ओर बढ़ रहा है। उसे चिढ़ाने के लिए उसके साथ पढ़ने वाला एक बच्चा उसके प्राइवेट अंग को लेकर टिप्पणी करता है। विवेक के दिमाग में किसी प्रकार यह बात बैठ जाती है कि, उसके शरीर का विकास समान्य नहीं है। एवं उसे इस सम्बन्ध में कुछ करना पड़ेगा। सेक्स से सम्बंधित चीजों से बिलकुल अनभिज्ञ विवेक अनेक प्रकार की चीजें आजमाने लगता है। और इसी प्रयोग में उसे “मास्टरबेशन” की आदत पद जाती है। और उसके साथी उसे बुली कहकर चिढ़ाते हैं। इसी का लाभ उठाते है, एवं स्कूल के टायलेट में उसका वीडियो रिकॉड कर उसे वायरल कर देते हैं।
वीडियो वायरल होने से विवेक की छवि ख़राब होती है, और उसका स्कूल से नाम काटकर स्कूल से निकल दिया जाता है। शुरू में इस पुरे मुद्दे को विवेक के पिता कांति शरण (पंकज त्रिपाठी) भी गन्दी हरकत की दृष्टि से देखते है। जैसे सारा समाज देखता है। परन्तु भगवान् शिव के दूत (अक्षय कुमार) की प्रेरणा से उसे समझ आता है कि, उसे अपने बेटे के लिए आवाज उठानी चाहिए।
इसके बाद कांति शरण स्कूल एवं सेक्सुअल हेल्थ के नाम पर लोगों को भ्रमित करने वाले डाक्टर -कैमिस्ट सहित स्वयं अपने नाम भी मानहानि का नोटिस भेजता है। और फिर शुरुआत होती है, एक कोर्ट की। जिससे “OMG 2” का पूरा सन्देश निकलकर सामने आता है। परन्तु इस फिल्म में इस सन्देश को जनता तक पहुंचाने में जिन बातों को औजार के रूप में उपयोग किया गया है, उसमें अगर ध्यान से देखा जाए तो बहुत सी दिक्क्तें दिखाई देती हैं।
मुख्य मुद्दे से भटकाव
किसी सन्देश को कहानी के द्वारा जनता तक पहुंचने का एक अच्छा माध्यम कोर्ट रूम का नाटक होता है। OMG 2 में विवेक के वकील स्वयं उसके पिता होते हैं। एवं दूसरे पक्ष की वकील कामिनी माहेश्वरी (यामी गौतम) होती हैं। इस फिल्म में केस का मुद्दा विवेक का स्टिग्मा है।
परन्तु जैसे-जैसे मुकदमा आगे बढ़ता है, वैसे-वैसे कहानी का मुद्दा इस बिंदु पर केंद्रित होने लगता है कि, स्कूलों में एडल्ट एजुकेशन आवश्यक क्यों है। कांति की दलीलें इस “क्यों” के चक्कर में काफी बचकानी तरह से शुरू होतीं हैं। यहाँ सबसे बड़ा मुद्दा ये है कि, अगर स्कूल बच्चों को सही एडल्ट एजुकेशन के बारे में पढ़ाता, तो शायद विवेक के साथ ये सब नहीं होता। परन्तु कुछ ही समय बाद कांति की बहस इस मुद्दे से भटक जाती है। और पहुँच जाती है, हमारे धार्मिक सांस्कृतिक साहित्य में कि, “कामशास्त्र” को कितना महत्त्व दिया गया था।
OMG 2 में एक मुद्दे पर इस टकराव का नजरिया “कामसूत्र” और उसमें बताये गए अनेकों क्रियाओं एवं मुद्राओं पर केंद्रित हो जाता है। यहां पर सबसे बड़ी कमी यह है कि, सेक्सुअल हेल्थ की परिभाषा “सेक्स” की क्रिया तक ही सिमट जाती है। जबकि यहाँ मुद्दा एक किशोर को उसके शरीर के बारे में उचित जानकारी न होने का है।
सेक्सुअल हेल्थ को “सेक्स” तक सीमित कर देने की यह कमी फिल्म में इस स्थिति में चली जाती है कि, एक मुद्दे पर अदालत के कटघरे में खड़ी एक महिला सेक्स-वर्कर से कांति ये सवाल भी करता है कि, उसके पास जो मर्द आते हैं, क्या वो महिलाओ के “सेक्सुअल सैटिस्फैक्शन” के सम्बन्ध में जानते है।
स्कूलों में एडल्ट एजुकेशन को पढ़ाये जाने की आवश्यकता को बढ़ावा देने के लिए शुरू हुए इस मुद्दे में, कांति उस सेक्स वर्कर से सवाल करते हैं कि, क्या वो अपने बेटे को महिलाओं की शारीरिक आवश्यकताओं से अनजान उन मर्दों की भांति बड़े होते देखना चाहती है, जो उसके ग्राहक हैं।
ये संतुष्टि क्या वही आइटम नहीं है, जिनके इश्तेहार ट्रेन के टायलेट में चिपके होते हैं। और इश्तेहार वाले विजिटिंग कार्ड्स चुपके से बसों की खिड़कियों से सीट पर फेंक दिए जाते हैं। जिसे संदिग्ध तरह के दिखने वाले क्लिनिक में, कोड वर्ड में बात करने वाले कथित “डाक्टर” बेचते आ रहे हैं।
OMG 2 के महिला किरदारों पर सवाल
इस फिल्म में एक ध्यान देने वाली बात ये है कि, इस फिल्म की कहानी में चल रहे मुकदमें में कांति के विपक्ष महिला वकील क्यों है। शायद यहाँ इस कहानी का उद्देश्य एक महिला के सामने “सेक्स” शब्द के प्रयोग में आने वाली लज्जता को प्रदर्शित करना हो।
विवेक का वीडियो कितना घटिया है, यह साबित करने के लिए एक सवाल पर कामिनी, कांति की बेटी एवं पत्नी को भी कटघरे में बुलाती है। कामनी ये प्रूव करने का प्रयास करती है कि, स्कूल के टायलेट में विवेक की हरकत एवं उसका वीडियो इतनी गन्दी चीज है कि, उसके अपने घर की महिलाएं भी इससे लज्जित हो जाती है।
कांति की बेटी, दमयंती (अन्वेषा विज) हिंदी के स्पष्ट शब्दों में “हस्तमैथुन” यानी “मास्टर बेशन” की परिभाषा अदालत में सुना देती है। और इस पर सिनेमा हाल में खूब तालियां बजती हैं। इसी तरह का कुछ तब भी होता है, जब कांति की पत्नी, इंदू को कटघरे में बुलाया जाता है।
कामिनी उनसे सवाल करती है कि, सुहागरात को क्या हुआ था। इस सवाल से फिल्म की पूरी कहानी पर कुछ विशेष प्रभाव नहीं पड़ता, सिवाय इसके कि, इंदु के जवाबों को “कामिनी को लज्जित करने” वाली अदा में दिखाया गया है। मतलब एडल्ट एजुकेशन की बात करने वाली लज्जापन को महिला वर्सेज महिला में परिवर्तित कर दिया जाता है। जबकि पूरा मुकदमा किशोरवस्था एवं मर्दों में इस मुद्दे पर लज्जापन ख़त्म करने को लेकर था।
कहानी के नेरेटिव टोन को डोकोड करने पर इन किरदारों का इंटरेक्शन यही दिखता है, जहां एक महिला स्कूलों में “एडल्ट एजुकेशन” को गलत बता रही है, वहीं इस पर 2 निर्भीक होकर बात कर रहीं हैं। परन्तु फिल्म में “एडल्ट एजुकेशन” की आवश्यकता का नेरेटिव केवल एक जेंडर यानी लड़कों तक सिमित रहता है।
यहां कहानी अपने सख्त सांस्कृतिक खोल से बाहर नहीं निकल पाती। बल्कि अंतिम सीक्वेंस में, चलती अदालत के खुले परिसर में जब काफी सारे लड़के “मास्टरबेशन” करने और सेक्स एजुकेशन की आवश्यकता पर अपनी आवाज बुलंद कर रहे हैं, तो केवल एक लड़की हाथ उठाती है, एवं कहती है कि, पीरियड्स पर बात होनी चाहिए।
मतलब सेक्सुअल हेल्थ की आवश्यकता पर बात तो की जाएगी, परन्तु इसमें एक ही जेंडर पर चर्चा होगी। महिलाओं के लिए इसकी आवश्यकता के सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा जाएगा। परन्तु मर्दों को सेक्सुअल हेल्थ पर बात करने के लिए महिला किरदारों का इस्तेमाल औजार की तरह अवश्य किया जाएगा।
वर्ष 2018 में अक्षय कुमार की ही फिल्म “पैडमैन” की पीरियड्स पर खुलकर बात करने के लिए काफी प्रशंसा हुई थी। परन्तु 5 वर्ष बाद आज जब एक फिल्म किसी प्रकार एडल्ट एजुकेशन की बात कर रही है, तो इसमें दूसरे जेंडर को भी थोड़ी जगह तो दी ही जा सकती थी।
अनेक दूसरी खामियां
एडल्ट एजुकेशन पर बात करने की आवश्यकता से शुरू हुई कहानी, अंग्रेजी शिक्षा की बुराइयों तक चली जाती है। परन्तु एक बच्चे के साथ जो हुआ, जिस मानसिक प्रताड़ना से वो गुजरा, उस पर पुरे मुकदमें में कहीं फोकस ही नहीं किया गया। उसकी काउंसलिंग जैसी बात कहीं नहीं दिखाई देती। विवेक के बुली होने, चोरी से उसका वीडियो रिकार्ड कर वायरल करने को कहानी में पूरी तरह से हटा दिया जाता है।
विवेक के साथ जो कुछ भी हुआ, उसमें सबसे बड़ी भूमिका एक वायरल वीडियो की है। जिसे विवेक के दोस्तों ने शुट किया। इस बात को फिल्म की कहानी जैसे भूल ही जाती है। स्कूल के टायलेट में एक बच्चे का वीडियो बनाया जाना, इतनी अनावश्यक बात हो जाती है कि, एक भी किरदार, एक मिनट के लिए भी इस विषय पर बात नहीं करता है।
एक विषय पर बात यहां तक पहुँच जाती है कि, कांति की भूमिका, “स्कूलों में एडल्ट एजुकेशन की शिक्षा कैसे दी जाए।” मुद्दे पर लेक्चर देने लगते हैं। और इसी सम्बन्ध में बात करते हुए उसके उदाहरण में शुद्ध हिंदी में महिला सौंदर्य की प्रशंसा करना शामिल है।
शायद विषय पर ये बताना कि, सही भाषा हो तो पुरुष कितनी सरलता से, उचित शब्दों में महिला की प्रशंसा कर सकता है। परन्तु अदालत में खड़ी एक आत्मविश्वासी महिला अपने ज्ञान और टैलेंट के बल पर एक सफल महिला है। उसकी प्रशंसा को उसके शारीरिक सौंदर्य तक सीमित करने का प्रयास एक गलत बात नहीं है।
इसी सीन में हिंदी समझने में कमजोर जज की, अदालत का एक आधिकारिक इशारे में समझा रहा है कि, कांति कैसे कामिनी के शरीर की बात कर रहा है। हवा में हाथ के इशारों से 8 जैसा फिगर बनाने का ये पूरा सीन देखने में बहुत ख़राब लगता है। ये पूरा सीन कैजुअल मिसोजिनी मतलब “अरे मजाक है जी” बोलकर महिलाओं पर गंदे कमेंट्स करने का सबसे अच्छा उदाहरण है।
पुरे मुकदमें में कांति का ये मुद्दा ये है कि, उसके बेटे ने जो किया वो गलत किया। परन्तु एडल्ट एजुकेशन की कमी के कारण से वो इस ओर गया। वहीं दूसरी ओर से मुकदमा लड़ रहीं कामनी का मुद्दा ये है कि, स्कूल में ऐसा करना गलत है। कांति की दलीलें एवं सबमिशन एक बार के लिए जिस प्रकार सेक्स पर खुलकर बात करने के लिए कहता है, वो वास्तव में काफी महिलाओं के लिए परेशानी उत्पन्न कर सकता है। एवं अदालत की पूरी बहस में एक ऐसा सीन भी आता है, जब विलेन के समान देखी जा रही, कामिनी की भूमिका अधिक सेंसिबल साउंड करती है।
हिंदी फ़िल्में अगर कोई अच्छा संदेश लेकर आतीं हैं, तो वास्तव में वो अधिक लोगों तक पहुँचता है। जैसे अक्षय कुमार की “टायलेट :एक प्रेम कथा” को देख लीजिये। परन्तु इस संदेश को अगर इस तरह से पेश किया जाए। जिसमें लिंग भेद न हो, जिसमें महिला किरदारों को केवल औजार की तरह इस्तेमाल न किया जाए, और मुद्दे में उनके “पाइंट आफ व्यू” को भी शामिल किया जाय, तो क्या उचित नहीं होगा। और किसी चीज को शामिल करने पर बल न दिया जाए। तो कम से कम जो चीजें कहानी को कमजोर करती हों, उनसे तो बचा जा सकता है।
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